वीर सुतों के वर शीशों का हाथों में लेकर प्याला,
तारकदल से पीनेवाले, रात नहीं है, मधुशाला।।३८।
जिसमें भरकर पान कराता वह बहु रस-रंगी हाला,
आँखिमचौली खेल रही है मुझसे मेरी मधुशाला।।९२।
सुमुखी तुम्हारा, सुन्दर मुख ही, मुझको कन्चन का प्याला
तंग गलियारों से गुजरी मैं, कुछ साए मुझसे चिपट गए
कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का read more प्याला,
किंतु रही है दूर क्षितिज-सी मुझसे मेरी मधुशाला।।९१।
दुतकारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला,
पत्र गरल का ले जब अंतिम साकी है आनेवाला,
और चिता पर जाये उंढेला पत्र न घ्रित का, पर प्याला
मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, मादक हाला,
लालायित अधरों से जिसने, हाय, नहीं चूमी हाला,
देव अदेव जिसे ले आए, संत महंत मिटा देंगे!